जावरा। हर जीव हर क्षण किसी से राग करते है और किसी से द्वेष करते है। जिस प्रकार तुला के दो पलडे होते है जो पलडा भारी होता है वह नीचे की ओर झुकता है और जो हल्का होता वह ऊपर जाता है। समतुला में हम वस्तु ग्रहण करते है, इसी प्रकार हमें भी समत्व भाव में रहना चाहिए तभी हम शांति पा सकते है। इसी के लिए सामायिक अमोघ यंत्र का कार्य करता है। सामायिक का अर्थ है समता की साधना, इस क्रिया में जैन श्रावक-श्राविका एकांत भाव में रहकर तीर्थंकरों व धर्म का चिंतन करते हैं।
उक्त विचार दिवाकर भवन पर विराजित उत्तर भारतीय प्रवर्तक, राष्ट्रसंत श्री सुभद्रमुनिजी महाराज साहब की आज्ञानुवर्तनी सरल आत्मा, मृदु स्वभावी शीतलजी मसा आदि ठाणा-5 ने आयोजित धर्मसभा को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। साध्वीश्री ने आगे कहा कि एक आत्मा प्रतिदिन लाख मुद्राओं का दान करती है और दूसरी मात्र दो घड़ी की शुद्ध सामायिक करती है। तो वह स्वर्ण मुद्राओं का दान करने वाली आत्माए सामायिक करने वाले की समानता प्राप्त नहीं कर सकती। आर्त और रौद्र ध्यान को त्याग कर संपूर्ण सावद्य (पापमय) क्रियाओं से निवृत्त होना और एक मुहूर्त पर्यंत मनोवृत्ति को समभाव में रखना-इसका नाम (सामायिक व्रत) है। सामायिक मन को स्थित रखने की अपूर्व क्रिया है –
सामायिक मन को स्थिर रखने की अपूर्व क्रिया है, आत्मिक अपूर्व शांति प्राप्त करने का संकल्प है। परम पद पाने का सरल और सुखद मार्ग है। अखंडानंद प्राप्त करने का गुप्त मंत्र है, दुरूख समुद्र को तिरने का श्रेष्ठ जहाज है। अनेक कर्मो से मलीन हुई आत्मा को परमात्मा बनाने का सामथ्र्य सामायिक क्रिया में ही है। यह क्रिया करने से आत्मा में रहे दुर्गुण नष्ट होकर, सद्गुण प्राप्त होते है। सामायिक करने वाला दो घड़ी के लिए समस्त पाप क्रियाओं का परित्याग कर देता है, जिससे उसके नए अशुभ कर्मों का बंधन बहुत रुक जाता है। उपरांत पुरानों की निर्जरा होती है तथा उत्तम पुण्यों का संचय होता है। जानकारी श्रीसंघ अध्यक्ष इंदरमल टुकडिय़ा ने दी। धर्मसभा का संचालन महामंत्री महावीर छाजेड़ ने किया। आभार उपाध्यक्ष विनोद ओस्तवाल ने माना।
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